आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का बेहद गौरवमयी और प्रेरणाप्रद हिस्सा है। ए0आई0एस0एफ0 भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह भाग है जिसके माध्यम से देश के छात्र समुदाय ने आज़ादी की लड़ाई में अपने संघर्षों और योगदान की अविस्मरणीय कथा लिखी। भारतीय इतिहास में छात्रांे के इस गौरवशाली संघर्ष गाथा का सफर 19वीं सदी से आरम्भ होकर आज़ाद भारत के तमाम उतार-चढ़ावांे से होते हुए 21वीं सदी के वर्तमान पड़ाव तक पहुँचता है।
भारतीय छात्र आन्दोलन का संगठित रूप 1828 में सबसे पहले कलकत्ता में एकेडमिक एसोसिएसन के नाम से दिखाई देता है, जिसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र विवियन डेरोजियों द्वारा की गई। एकेडमिक एसोसिएसन देश का पहला छात्र संगठन था जिसने सामंतवाद विरोधी, स्वतंत्रता, प्रगति और आधुनिकता जैसे विचारों के प्रचार-प्रसार का काम किया। एकेडमिक एसोसिएसन के पश्चात दूसरा संगठित रूप 1840 से 1860 के मध्य यंग बंगाल मूवमेंट के रूप में दिखाई पड़ता है। यंग बंगाल मूवमेंट ने बंगाल के सामाजिक और राजनैतिक जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसके बाद भी छात्र संगठनों के रूप में छोटी और लगातार कोशिशंे दिखाई पड़ती हैं। इन सबके अलावा छात्र संगठन के रूप में दूसरी महत्वपूर्ण कोशिश 1948 में दादा भाई नौरोजी की पहल पर मुम्बई में स्टूडेन्ट्स लिटरेरी और साइंटिफिक सोसायटी के रूप में जान पड़ती है। कलकत्ता के आनन्द मोहन बोस और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में स्थापित स्टूडेन्ट्स एसोसिएसन संभवतः 19वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण संगठन था। इस संगठन के नेतृत्व ने संगठन बनाने के लिए पहली बार जनसभाओं एवं जनान्दोलनों का सहारा लिया इसके अलावा इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में विशेष एवं महती भूमिका अदा की। इन कुछ महत्वपूर्ण कोशिशांे के अलावा भी देश के कई अन्य भागों में युवा एवं छात्र संगठनों और छात्र आन्दोलनों की पहल अनेक छात्र नेताओं द्वारा की गई।19वीं सदी का अन्तिम दशक और 20वीं सदी का शुरुआती दौर काफी घटना प्रधान समय था। विशेषतौर पर शिक्षा के प्रसार के लिए कई काम किए जा रहे थे, जहाँ बम्बई विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी तो वहीं कई काॅलेज और विद्यालयों की स्थापना भी इस दौर में हो रही थी। माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या जहाँ दो लाख थी, स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर 14 हजार से भी अधिक छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक प्रकार से यह वह समय था जब छात्र आन्दोलन और संगठनों के लिए भौतिक परिस्थितियाँ धीरे -धीरे तैयार हो रही थीं। 20वीं सदी के शुरुआती दशक की परिस्थितियाँ छात्र आन्दोलनों और संगठनों के लिए बेहद उपयुक्त थीं। बंगाल विभाजन ने जहाँ देश की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी तो वहीं छात्र एवं युवा भी इस घटना से उद्वेलित और आन्दोलित हुए बिना नहीं रह सके। 1902 में स्थापित डान सोसायटी इस दौर का बेहद प्रभावशाली संगठन था। इंडियन यूनिवर्सिटीज कमीशन की एक रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद छात्र और शिक्षाविदों ने मिलकर 1902 में इस संगठन की स्थापना की। शिक्षा के लिए सबसे पहले स्वदेशी संस्थानों की माँग करने वाले इस संगठन ने ही भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में स्वदेशी और बंग भंग विरोध का आधार तैयार किया। 16 अक्टूबर 1905 में बंगाल का विभाजन हो गया। विभाजन के विरोध स्वरूप देश भर में बंग भंग विरोधी एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। प्रतिरोध की इस आग के कारण छात्र समुदाय में भी एक जबरदस्त विरोध का उभार दिखाई दिया। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप विदेशी वस्तुओं और वस्त्रों के बहिष्कार और स्वदेशी के इस्तेमाल और स्वदेशी शिक्षा की माँग को लेकर देश भर में स्वदेशी आन्दोलन की शुरुआत हुई। बंग भंग विरोध एवं स्वदेशी आन्दोलन भारत का पहला बड़ा छात्र-युवा आन्दोलन था, जिसमें कुछ दूसरे तबकों ने भी भाग लिया। इस आन्दोलन ने भारत के इतिहास में गहरा प्रभाव छोड़ा जिस कारण बाद के वर्षों में कई संगठनो और आन्दोलनांे ने जन्म लिया और इस आन्दोलन का फैलाव भी देश के अन्य भागों में होना शुरू हुआ। यह दौर छात्र समुदाय की संख्या में उतारोतर बढ़ोत्तरी के साथ ही छात्रांे की राजनैतिक गतिविधियों में भी गुणात्मक और मात्रात्मक उभार का था। छात्रों के संगठित होने की इसी कड़ी में 1906 में पटना में बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन की स्थापना राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर हुई। राजेन्द्र प्रसाद आगे चलकर आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन ने बिहार के सभी जिलों में अपनी शाखाएँ स्थापित करने के साथ ही कलकत्ता और बनारस तक भी संगठन का फैलाव किया। इस संगठन की स्थापना कोई अस्थायी घटना नहीं थी, यह संगठन 1921 के बाद तक भी संगठन के सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित करता रहा और इसके अलावा 1908 में बिहार में कांग्रेस की स्थापना में भी इस छात्र संगठन की महती भूमिका रही।
एनी बेसेंट ने 1908 में बनारस से सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। जिसमें उन्होंने कई बार एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की आवश्यकता पर बल दिया। एनी बेसेंट की इन्हीं कोशिशों के कारण देश के शिक्षित हिस्से, छात्र, अध्यापक और राजनेताओं में अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरूरत पर चर्चा होना शुरू हो गई। इन्हीं चर्चाओं के चलते 1917 में रूसी क्रान्ति हो गई जिसके कारण दुनिया में माक्र्सवादी विचारों का तेजी से प्रचार-प्रसार होना शुरू हो गया। समाजवाद के इस प्रचार ने दुनिया के स्वतंत्रता आन्दोलनांे पर गहरा प्रभाव छोड़ा तो वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकटों को भी बढ़ाया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में भी इन बदली हुई परिस्थितियों के कारण तेजी देखने में आई। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के क्षितिज पर कई क्रान्तिकारी और जनाधार वाले नेताओं का उदय हुआ इनमें तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस प्रमुख नाम थे। इसके साथ ही समाजवादी और वामपंथी विचारांे के फैलाव में भी तेजी आई। इसी के साथ 1919-20 में कई शहरों और प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन किया गया। यह असहयोग-आन्दोलन की तैयारियों का समय था। अन्त में दिसम्बर 1920 में कांग्रेस अधिवेशन के मौके पर एक अखिल भारतीय स्तर के छात्र सम्मेलन के आयोजन पर सहमति बनी। जिसके कारण 25 दिसम्बर 1920 को नागपुर में आॅल इंडिया काॅलेज स्टूडेन्ट्स काॅन्फ्रेंस का आरम्भ हुआ। इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आर0 जे0 गोखले थे और इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया। इस सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि सभी छात्र असहयोग-आन्दोलन और स्वदेशी आन्दोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेंगे। यह देश का पहला अखिल भारतीय स्तर का छात्र सम्मेलन था। इस पहल की खबर पूरे देश में तेजी से फैली और इसने छात्रांे के अन्दर एक नई तरह की राजनैतिक समझदारी और उत्साह का संचार किया। इस संगठन के कम से कम पंच सम्मेलन आयोजित किए गए और संगठन के तौर पर इस पहल ने कुछ वर्षांे तक सक्रियता के साथ काम किया।
1920 से 1935 के बीच का समय काफी घटना प्रधान था। इस दौरान देश में बड़े स्तर पर विद्याालयों और महाविद्यालयों की भी स्थापना हुई। छात्र समुदाय की संख्या में लगभग तीन गुना बढ़ोत्तरी 20वीं सदी की शुरुआत से अब तक हो चुकी थी। यह देश में एक मजबूत छात्र आन्दोलन के लिए भौतिक परिस्थितियाँ और आधार तैयार होने की प्रक्रिया थी। बड़ी संख्या के साथ ही देश की आजादी के संघर्षो में भी अब छात्रांे की एक महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई दे रही थी। छात्र समुदाय अब राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इसी के साथ नए-नए छात्र संगठनों के बनने की प्रक्रिया तेज हो रही थी। इसी दौर में 1928-30 के मध्य देश में यूथ लीग मूवमेंट नामक एक संगठन का निर्माण कुछ छात्र युवाआंे ने मिलकर किया। इस संगठन ने छात्रों और युवाओं के मध्य क्रान्तिकारी विचारांे का तेजी से प्रचार किया। यह संगठन छात्र, युवाओं के मध्य वामपंथी और माक्र्सवादी विचारों को ले जाने का वाहक बनकर उभरा। सोवियत रूसी क्रान्ति के प्रभाव से देश में छात्रों और युवाओं ने एक नई क्रान्तिकारी विचारधारा की राह प्रशस्त की। देश में समाजवादी क्रान्ति का शुरुआती सपना बुनने वालों में जवाहर लाल नेहरू, यूसुफ मैहर अली, सुभाष चन्द्र बोस और पूरन चन्द्र जोशी प्रमुख नाम थे। इस संगठन ने काॅलेज, स्कूल, गली मोहल्लों और बस्तियों के स्तर पर देशभर में संगठन की स्थापना की तथा लगातार पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित करके भी एक देशव्यापी छात्र संगठन के भविष्य की नींव रखी। छात्र आन्दोलनों की इसी कड़ी में पूरे देश में लगातार अलग-अलग प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन होता रहा। 1928 में कलकत्ता में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक आॅल इण्डिया सोशलिस्ट यूथ कांफ्रेंस का आयोजन किया गया तो वहीं 1929 में लाहौर में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स कंवेंशन का भी आयोजन किया गया, 1920-30 के मध्य पूरे देश के सभी प्रांतो में मानो छात्र संगठनो, सम्मेलनों और छात्र संघों की बाढ़ सी आ गई थी। लगातार छात्र संगठनों के बनने की ये घटनाएँ दरअसल एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरुरतांे और उसके बनने की प्रक्रिया को रेखांकित कर रही थीं। पंजाब, बिहार, यूपी, मद्रास, कलकत्ता, इलाहाबाद, आसाम, बंगाल, लाहौर और सिंन्ध सभी जगह छात्र संगठन बन रहे थे जिनमें से अधिकतर का विलय आगे चलकर ए0आई0एस0एफ0 में हो गया। इनमें से कई संगठनों का किसी राजनैतिक धारा से जुड़ाव था तो कई बिल्कुल अराजनैतिक एवं स्वतंत्र संगठन थे।
इसी क्रम में आगे चलकर 26, मार्च 1931 को कराँची में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयेजन किया गया। इस सम्मेलन में देशभर से 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया परन्तु किसी कारणवश यह एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का रूप धारण नहीं कर पाया।
ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। संयुक्त प्रांत (यूपी) के उस समय के गवर्नर सर मालकाम हैली उस समय के युवा छात्र संगठन के उभार को लेकर काफी फिक्रमंद थे। उनकी कोशिश थी कि छात्रों के असंतोष से बनने वाले किसी प्रभावी छात्र संगठन से पहले सरकार की ओर से कोई आधिकारिक ढ़ाचा खड़ा किया जाए। इसके मद्देनजर इलाहाबाद, बनारस, आगरा, अलीगढ़ और लखनऊ के छात्रों की एक बैठक लखनऊ विश्वविद्यालय के उप कुलपति द्वारा बुलाई गई। परन्तु यह कोशिश ब्रिटिश अधिकारियों को भारी पड़ी। राष्ट्रवादी छात्रों ने बैठक और उसकी कार्यवाही को अपने कब्जे में ले लिया। एम0 बदयँूद्दीन, पी0एन0 भार्गव, शफी नकवी, जमाल अहमद किदवई और जगदीश रस्तोगी सरीखे छात्रों ने ब्रिटिश साम्राज्य की मंशाओं को ध्वस्त कर दिया। इस बैठक में जार्ज वी0 पर एक शोक प्रस्ताव लाया गया जिसके विरोध में उपर्युक्त छात्र ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता एवं सांसद सापुरजी सकतवाला की मृत्यु पर एक शोक प्रस्ताव लेकर आ गए। परन्तु उपकुलपति ने शोक प्रस्ताव में सकतवाला के नाम जोड़े जाने का मुखर विरोध किया। छात्रों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की धमकी भी दी गई यहाँ तक कि तीन छात्रों को विश्वविद्यालय से निलंबित भी कर दिया गया। बावजूद इस घटनाक्रम के बैठक का 50 छात्रों ने बहिष्कार कर दिया। इसके बाद छात्र नेताओं ने निर्णय किया कि यदि फौरन एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का निर्माण नहीं किया गया तो ब्रिटिश प्रशासन अपना कठपुतली छात्र संगठन खड़ा कर लेगा। परिणाम स्वरूप यू0पी0 विश्वविद्यालय छात्र फैडरेशन ने तुरन्त अपनी कार्यकारिणी की एक बैठक 23 जनवरी 1936 को बुलाकर निर्णय किया कि उन्हें तत्काल प्रभाव से एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाना चाहिए अन्यथा ब्रिटिश सरकार ऐसी पहल करके एक सरकारी छात्र संगठन खड़ा कर देगी। अन्ततोगत्वा अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने की तारीख 12-13 अगस्त 1936 तय की गई।
पी0 एन0 भार्गव की अध्यक्षता में प्रस्तावित सम्मेलन के लिए एक स्वागत समिति का गठन किया गया। इस स्वागत समिति की तर्ज पर यू0पी0 के सभी प्रमुख जिलो में भी तैयारी समितियों का गठन किया गया। इसके साथ ही देश के सभी छात्र संगठनो और कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनैतिक धड़ांे से संपर्क करने का काम विधिवत शुरू हुआ। सम्मेलन की घोषणा ने देश भर में उत्साह का संचार कर दिया और सभी छात्र नेता और संगठन उत्साह पूर्वक सम्मेलन की तैयारियों में लग गए। सम्मेलन में बेहद जनवादी तरीके से नेतृत्व का चुनाव हुआ। सम्मेलन की प्रतिनिधि फीस एक रूपया थी।ए0आई0एस0एफ0 का स्थापना सम्मेलन लखनऊ के सर गंगा राम मैमोरियल हाॅल में संपन्न हुआ। सम्मेलन में 936 प्रतिनिधियांे ने भाग लिया जिसमें 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन में महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सर तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुए। सभी विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधित्व के साथ यह विद्यार्थियों की सबसे बड़ी गोलबंदी थी।
स्वागत समिति के अध्यक्ष के तौर पर पी0एन0 भार्गव ने स्वागत भाषण दिया और पं0 जवाहर लाल नेहरू के भाषण से सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियांे का विश्लेषण करते हुए छात्रों से आजादी का परचम उठाने का आह्वान किया। इसके अलावा अपने अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने भी इस बात की खुशी जाहिर की कि देश के अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग आज यहाँ पर एक साझे मकसद के लिए एकत्र हुए हैं। आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के अलावा कई सवालों पर सम्मेलन द्वारा प्रस्ताव भी पारित किए गए।
ए0आई0एस0एफ0 के इस स्थापना सम्मेलन में पी0एन0 भार्गव पहले महासचिव निर्वाचित हुए। इसी के साथ स्टूडेन्ट्स ट्रिब्यून भी ए0आई0एस0एफ0 का पहला आधिकारिक मुखपत्र बना। ए0आई0एस0एफ0 का गठन एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी जिसने पूरे छात्र समुदाय में एक जोश के साथ परिपक्वता का संचार किया। ए0आई0एस0एफ0 का दूसरा सम्मेलन महज तीन महीने के अन्तराल पर ही 22 नवम्बर 1936 को लाहौर में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में ए0आई0एस0एफ0 का संविधान तैयार करने पर सहमति हुई। शरत चन्द्र बोस की अध्यक्षता में हुए दूसरे सम्मेलन में 150 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। शरत चन्द्र बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छात्रों को रूसी क्रान्ति से प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित किया। सम्मेलन ने स्पेन में नाजी जर्मन की अनुचित दखलंदाजी के खिलाफ भी एक प्रस्ताव पारित किया। देश भर में चल रहे छात्र आंदोलनों के आधार पर ए0आई0एस0एफ0 ने छात्रांे का एक माँगपत्र भी लाहौर सम्मेलन में तैयार किया।
लाहौर सम्मेलन में एक ओर उल्लेखनीय घटना घटी। यहाँ पर कुछ मुस्लिम छात्रों द्वारा 1936 के अन्त में लखनऊ में एक आल इंडिया मुस्लिम छात्र सम्मेलन आयोजित किए जाने से संबंधित प्रस्ताव लाने की कोशिश की गई। परन्तु उन्हें मुस्लिम छात्रों का ही भारी विरोध झेलना पड़ा और उनकी योजना धराशायी हो गई। प्रतिनिधिया ने इस अलग संगठन के विचार के खिलाफ एक जनसभा का आयोजन किया। इस जनसभा में अलग मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का भारी विरोध हुआ। यहाँ तक कि अली सरदार जाफरी इस विचार के विरोध में एक प्रस्ताव भी ले आए। इसके अलावा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के संदेश भी सम्मेलन में पढ़े गए। जिसमें उन्होनें किसी भी मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का विरोध करते हुए छात्रों से अधिक से अधिक संख्या में ए0आई0एस0एफ0 में शामिल होने का आह्वान किया। अलग मुस्लिम छात्र सम्मेलन के विचार को प्रतिपादित करने वाले इफि़्तख़ार हसन ने इसके पक्ष में कई तर्क दिए मगर उनकी बात को छात्रों ने एकदम खारिज कर दिया।
छात्र नेता रमेश चन्द्र सिन्हा और जे0जे0 भट्टाचार्य की गिरफ्तारी के विरोध में यू0पी0 के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया। गिरफ्तारी का विरोध करते हुए और अपनी 37 सूत्री माँगों के लिए प्रदर्शन करते हुए 15 हजार छात्र उस समय के यू0पी0 के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त के निवास के सामने पहुँच गए। इसी तरह के छात्र आंदोलन कलकत्ता, मद्रास सहित देश के अन्य भागों में भी दिखाई दिए। स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने नवम्बर 1936 से अपने मुखपत्र स्टूडेन्ट्स ट्रिब्यून का प्रकाशन शुरू किया तो वहीं मुम्बई से स्टूडेन्ट्स काॅल और कलकत्ता से छात्र अभिजन का प्रकाशन शुरू हुआ। ए0आई0एस0एफ0 के गठन ने केवल भारत में ही नहीं विदेशों में शिक्षा ग्रहण कर रहे भारतीय छात्रों को भी संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। यूरोप में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा 1937 में ऐसी ही एक कोशिश आॅक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज मजलिस की पहल पर एक सम्मेलन के रूप में लंदन में हुई। इस सम्मेलन में दस ब्रिटिश विश्वविद्यालयों के अलावा कई छात्र संगठनांे एवं भारत से आए बिरादराना संगठनों के छात्र नेताओं ने हिस्सा लिया। यहाँ पर ब्रिटेन और आयरलैंड में शिक्षारत भारतीय छात्रों का एक फैडरेशन बनाने का निर्णय लिया गया इसके अलावा भारत में ए0आई0एस0एफ0 से संपर्क बनाने का भी फैसला हुआ।
तीसरा ए0आई0एस0एफ0 सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का तीसरा सम्मेलन 1938 में 1 से 3 जनवरी तक मद्रास में आयोजित किया गया। इस बीच ए0आई0एस0एफ0 का फैलाव दूर दराज के गाँवांे और कई प्रांतों में भी हुआ। ए0आई0एस0एफ0 के काम का फैलाव राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेजी से हुआ। तीसरे सम्मेलन ने अंसार हरवानी को महासचिव के तौर पर चुना।चैथा सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 एक व्यापक जनाधार वाले छात्र आंदोलन के रूप में उभर रहा था। ए0आई0एस0एफ0 का चैथा सम्मेलन 1 से तीन जनवरी 1939 को कलकत्ता में आयोजित किया गया। चालीस हजार से अधिक सदस्य छात्रों के प्रतिनिधि के रूप में देश भर से इस सम्मेलन में 800 छात्रों ने भाग लिया। इसके अलावा 1500 और छात्रों ने पर्यवेक्षक के रूप मंे सम्मेलन की तमाम कार्यवाही में भाग लिया। एम0एल0 शाह सम्मेलन में नए महासचिव चुने गए।1939 में ए0आई0एस0एफ0 ने कई देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व किया। उड़ीसा के मेडिकल छात्रों की माँगांे को लेकर राज्य में बडे़ अंादोलन की शुरुआत हुई जिसका बाद में देश भर में प्रभाव नजर आया। छात्रों ने प्रदर्शन, हड़ताल और सत्याग्रह जैसे विरोध के सभी तरीकों का प्रयोग किया। अन्ततोगत्वा प्रशासन को छात्रों की माँगों के समक्ष झुकना पड़ा। नाजीवाद और फासीवाद के बढ़ते खतरे के बीच 1 सितम्बर 1939 को दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। ब्रिटिश सरकार ने बगैर भारतीय नेताआंे से मंत्रणा किए भारत के युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। अंग्रेजांे की इस घोषणा का पूरे देश में जोरदार विरोध हुआ और बम्बई के मजदूरों ने 2 अक्टूबर 1939 को ऐतिहासिक युद्ध विरोधी हड़ताल का आयोजन किया। इस ऐतिहासिक हड़ताल के समर्थन मंे छात्रों ने 8-9 अक्टूबर 1939 को नागपुर में एक बड़ी रैली और कन्वेंशन का आयोजन किया। इस रैली की अध्यक्षता सुभाष चन्द्र बोस और स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने की।
पाँचवाँ सम्मेलन
विश्वयुद्ध की इसी छाया के बीच 1-2 जनवरी 1940 को ए0आई0एस0एफ0 का पाँचवाँ सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया। सम्मेलन ने युद्ध की कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए 26 जनवरी को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय किया। एम0एल0 शाह को फिर से संगठन का महासचिव निर्वाचित किया गया। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने युद्ध के दौरान एक प्रोविजनल सरकार बनाने की माँग की जिसे ब्रिटिश सरकार ने खारिज कर दिया। इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार 8 अगस्त 1940 को 1 अगस्त प्रस्ताव लेकर आ गई। ए0आई0एस0एफ0 ने पहले भी इस प्रकार के डिफेंस आॅफ आॅर्डिनेंस का बंगाल में विरोध किया था। इसके अलावा ए0आई0एस0एफ0 ने कपड़ा मजदूरांे की युद्ध विरोधी 1940 की बम्बई हड़ताल का बेहद सक्रिय ढ़ंग से समर्थन किया था। इसके बाद देशभर में विरोध प्रदर्शनों, हड़तालों और विरोधांे का दौर शुरू हुआ। छात्र भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश सरकार के इस विरोध के समर्थन में आए। ए0आई0एस0एफ0 की एक बुकलेट ‘‘रोल आॅफ स्टूडेन्ट्स इन एन्टी इम्पीरियस्टि स्ट्रगल’’ भी अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया।
ए0आई0एस0एफ0 का छठाँ सम्मेलन अन्ततोगत्वा सम्मेलन के प्रतिनिधि दो हिस्सों में बँट गए। एक हिस्सा जो अति राष्ट्रवादी था और दूसरा हिस्सा जो कम्युनिस्टों से संबंधित था और सांगठनिक एवं राजनैतिक तौर पर अधिक स्पष्ट भी था। दोनांे गुटों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सवालों को लेकर अपना-अपना कठोर रुख कायम कर लिया। इस गुटबाजी के कारण नागपुर सम्मेलन में ए0आई0एस0एफ0 दो भागों में बँट गया। एक हिस्सा जिसने वामपंथी नेता एम0 फारूकी को अपना महासचिव चुना तो दूसरे हिस्से ने एम0एल0 शाह को अपना महासचिव चुना। प्रो0 सतीश कालेकर ने दोनांे गुटों को मिलाने की भरपूर कोशिश की मगर दोनों गुटों के कठोर रुख के कारण उन्हंे असफलता ही हाथ लगी। इस फूट के कारण देश का छात्र आंदोलन दो फाड़ हो गया और जिसके कारण छात्रों में काफी निराशा और असंतोष था।
इसी बीच 22 जून 1941 में नाजी जर्मनी ने समाजवादी सोवियत संघ पर बड़ा हमला कर दिया। अब द्वितीय विश्वयुद्ध में एक गुणात्मक परिवर्तन आ चुका था। हिटलर के फासीवादी इरादांे के खिलाफ लड़ाई में ब्रिटेन भी सोवियत संघ के साथ शामिल हो गया। दुनिया में पहले सर्वहारा राज्य पर आक्रमण के साथ ही अब यह संघर्ष साम्राज्यवादी अन्तर्विरोधों के संघर्ष से बदलकर सर्वहारा पर हमले और नाजीवादी हमले से बचाव का एक जनयुद्ध बन चुका था।
सातवाँ सम्मेलन
ऐसी परिस्थितियांे में ए0आई0एस0एफ0 का सातवाँ सममेलन 31 दिसम्बर 1941 को शुरू हुआ। विश्वयुद्ध के चरित्र पर लम्बी और बड़ी बहस के बाद संगठन ने नाजी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की किसी भी कोशिश के समर्थन करने का प्रस्ताव पारित किया। विश्वयुद्ध में आए इस गुणात्मक परिवर्तन और नाजी जर्मनी के खिलाफ सोवियत संघ के समर्थन का आवाह्न संगठन की बड़ी उपलब्धि थी। दरअसल नाजी जर्मनी के सामने इस युद्ध में सोवियत संघ ही सबसे बड़ा खतरा और बाधा थी, अब सोवियत का समर्थन ही दुनिया में फासीवाद के खतरे को रोक सकता था। इतिहास गवाह है कि ऐसा हुआ भी। ए0आई0एस0एफ0 के इस आवह्न के बावजूद सरकार ने संगठन की राह में रुकावटें खड़ी करना जारी रखा। ए0आई0एस0एफ0 ने एक राष्ट्रीय सरकार गठित करने की माँग रखी। संगठन के कुछ राष्ट्रवादी छात्रों ने जापानी सेनाआंे के सामने समर्पण की बात भी रखी जिसे ए0आई0एस0एफ0 ने आत्मघाती कदम कह कर एकदम खारिज कर दिया। फासीवादी खतरे का सामना करने के लिए ए0आई0एस0एफ0 ने देशव्यापी सघन अभियान चलाया। फासीवादी खतरे के खिलाफ इस मुहिम के तहत संगठन ने 15 मई 1942 को दिल्ली में एक सफल डिफेंस कंवेंशन का भी आयोजन किया जिसके फौरन बाद 9 अगस्त 1942 से कांग्रेस ने ‘‘भारत छोड़ो‘‘ आंदोलन का आवाह्न कर दिया। जनवरी से अगस्त 1947 भारतीय स्वतंत्रता के लिए गहन राजनैतिक
गतिविधियों से परिपूर्ण कठिन समय था। यह ए0आई0एस0एफ0 की संयुक्त जन कार्यवाहियांे का समय था। बम्बई के प्रांतीय गृहमंत्री मोरारजी देसाई ने 22 जुलाई को छात्रों की एक बैठक पर रोक लगा दी तो बम्बई के 60000 छात्र हड़ताल पर चले गए। इसके समर्थन में बनारस और कानपुर में भी बडी हड़तालों का आयोजन किया गया।14-15 अगस्त की रात को लाल किले से ब्रिटिश यूनियन जैक उतर गया और उसकी जगह तिरंगे ने ले ली। आखिरकार भारत की आजादी का दिन आ ही गया। ए0आई0एस0एफ0 ने भी विभिन्न संगठनों और देश के साथ मिलकर आजादी के उत्सव में हिस्सेदारी की। दिल्ली में स्टूडेन्ट्स कांग्रेस के साथ मिलकर ए0आई0एस0एफ0 ने लार्ड डरविन की मूर्ति पर चढ़कर उसके मुँह पर कालिख पोती और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पुत्तला फूँका। यह आजादी का वह उत्सव था जिसके लिए संघर्ष में आर0एस0एस0 जैसे संगठनों ने बाधाएँ खड़ी करने के अलावा कोई योगदान नहीं दिया और अपने कुत्सित प्रयासों को उन्होंनें साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म करने के तौर पर जारी रखा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद छात्र आन्दोलन
आजादी के वातावरण में नई उम्मीदंे, नए सपने और नई महत्वकांक्षाएँ जन्म ले रही थीं। इस समय नए नेतृत्व के सामने विकास का एक ऐसा रोडमैप तैयार करने की चुनौती थी जिस पर चलकर विकास की निर्धारित मंजिल तक पहँुचा जा सके। स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने औद्योगिकीकरण की योजनाओं के साथ ही नया प्रशासनिक ढ़ाँचा तैयार करने में भरपूर योगदान किया। छात्र फैडरेशन ने सांमतशाही के खिलाफ देश की अखण्डता और रियासतों के विलय के सवालों पर उठे आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। चाहे औरंगाबाद का संघर्ष हो या निज़ाम हैदराबाद के खिलाफ लड़ाई, छात्रों ने संघर्षों में एक जुझारू भूमिका अदा की। हैदराबाद स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर शिरकत की। ए0आई0एस0एफ0 के 400 छात्रों ने गुरिल्ला लड़ाई में सामंतशाही को खत्म करने के लिए भाग लिया। हालाँकि यह संघर्ष आजादी के बाद भी जारी रहा और अन्ततोगत्वा हैदराबाद की जनता ने नई भारतीय सरकार का साथ दिया।
ग्यारहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का ग्यारहवाँ सम्मेलन दिसम्बर 1947 में हुआ। बम्बई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने सम्मेलन के पहले दिन 28 दिसम्बर को इस पर
प्रतिबंध लगा दिया। सम्मेलन गुप्त रूप से सम्पन्न हुआ जिसमें 1500 प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों ने भाग लिया। परन्तु संगठन की कार्यकारिणी को आम सभा और रैली करने की इजाजत नहीं मिल पाई। फिर भी नेतृत्व ने प्रतिबंध को तोड़कर कार्यक्रम करने का निर्णय किया जिस के कारण छात्रों को लाठीचार्ज और गोलीबारी का सामना करना पड़ा। इस पुलिस ज्यादती के खिलाफ ए0आई0एस0एफ0 ने 9 जनवरी को विरोध दिवस के रूप में मनाया। सरकार की ज्यादतियों की दुनिया भर में निन्दा हुई दुनिया के कई छात्र एवं युवा संगठनों ने सरकार के इस कृत्य की आलोचना की। ए0आई0एस0एफ0 ने आजादी के फौरन बाद से ही छात्र और देशहित की लड़ाई जारी रखी। चाहे वह फीस वृद्धि का सवाल हो, शिक्षा के जनवादीकरण का या सांप्रदायिकता से लड़ने का ए0आई0एस0एफ0 ने अन्य जनवादी धर्मनिरपेक्ष छात्र संगठनों के साथ मिलकर संघर्ष जारी रखा।
बारहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का बारहवाँ सम्मेलन 23-27 जुलाई को कलकत्ता में सम्पन्न हुआ। 80 हजार सदस्यों के प्रतिनिधियों के तौर पर सम्मेलन में 340 छात्रों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में संगठन ने एक दुस्साहसिक और संकीर्णतावादी दिशा में बढ़ने का निर्णय किया। इस निर्णय द्वारा संगठन ने आजादी के स्वागत को छोड़कर उसके खिलाफ खड़ा होने की दिशा ली। संगठन ने संकीर्णतावादी नारा दिया देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है। संगठन के इस कदम से ए0आई0एस0एफ0 छात्रों के बीच अलग-थलग पड़ गया। तमाम असहमतियों के बावजूद देश की जनता हथियार उठाकर नेहरू सरकार को उखाड़ फंेकने के लिए अभी तैयार नहीं थी क्योंकि जनता अभी तक आजादी का स्वागत कर रही थी। दरअसल यह आत्मघाती कदम अति वामपंथी बी0टी0आर0 लाइन के कारण था।
ए0आई0एस0एफ0 ने अपनी दिशा और गतिविधियों में सुधार किया। संगठन ने तय किया कि उसे छात्रांे की समस्याओं पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ए0आई0एस0एफ0 ने अब छात्रों की शैक्षिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए जन आंदोलन के निर्माण का काम शुरू किया। यह देश को एक नए व वैकल्पिक विकास के रास्ते पर ले जाने की तरफ बढ़ने में ए0आई0एस0एफ0 की भागेदारी का प्रयास था।
1950 में भारत के एक गणराज्य बनने की घोषणा और नया संविधान लागू हो जाने के साथ ही देश के विकास की संभावनाओ के लिए नई राहें और आशाएँ बन रही थीं। युवा और छात्र आन्दोलन के विकास की भी नई राहंे बन रही थीं जिसके लिए नए रास्ते और नए तरीकों की आवश्यकता थी। यह समय पूरे देश में एक नए जनवादी ढाँचे के तैयार होने का था। पूरे देश में छात्र संघांे का निर्माण हो रहा था जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
तेरहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का तेरहवाँ सम्मेलन 1-5 जनवरी 1953 को हैदराबाद में हुआ। एक लाख से अधिक की सदस्यता के आधार पर सम्पन्न इस सम्मेलन में देश भर से 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन के बाद संगठन ने देश भर में छात्र संघों के निर्माण के लिए और फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ आन्दोलन चलाए। इस दौरान पुलिस द्वारा दिसम्बर 1953 को डाॅ0 जगदीश लाल की हत्या कर दिए जाने के खिलाफ राज्य भर में आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। वहीं 1954 में शैक्षिक संस्थानो की स्वायŸाता बचाने के लिए और यू0पी0 यूनिवर्सिटी बिल के खिलाफ भी यू0पी0 में बड़ा आन्दोलन ए0आई0एस0एफ0 के नेतृत्व में हुआ।
चैदहवाँ सम्मेलन और गोवा मुक्ति संग्राम
ए0आई0एस0एफ0 का चैदहवाँ सम्मेलन 5-8 जनवरी 1955 में लखनऊ में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में पुर्तगाली दासता से गोवा की मुक्ति का प्रश्न छाया रहा। ए0आई0एस0एफ0 ने देश के छात्रों से बड़ी संख्या में गोवा के मुक्ति संघर्ष में शामिल होने का आवाह्न किया। ए0आई0एस0एफ0 और समाजवादी युवक सभा ने संयुक्त रूप से 12 जुलाई को दिल्ली में गोवा मुक्ति के लिए कार्यक्रम आयोजित किया। 9 अगस्त 1955 को ‘पुर्तगालियों भारत छोड़ो’ दिवस के रूप में मनाया गया। वहीं 3 अगस्त 1955 को 59 कम्युनिस्टों सहित 250 स्वयंसेवकों ने गोवा में प्रवेश किया। जहाँ पुर्तगाली सैनिकों ने उन पर गोलीबारी की और इसमें दो कम्युनिस्ट वी0 के0 थोराट और नित्यानन्द साहा शहीद हुए। इस गोलीबारी के खिलाफ देश भर में छात्र हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों की झड़ी लग गई जिसमें चार लाख से भी अधिक छात्रों ने भाग लिया। देश भर से लोग गोवा में दाखिल होने के लिए उमड़ पड़े। गोवा की सीमा पर इन सत्याग्रहियों का साथ देने के लिए ए0आई0एस0एफ0 के महासचिव सुखेन्दु मजूमदार के साथ छात्र नेता सी0 के0 चन्द्रप्पन भी मौजूद थे। इसके बाद 16 अगस्त को दिल्ली में एक बड़ी रैली आयोजित की गई जिसमें 2 लाख छात्रों ने भाग लिया।
12 अगस्त 1955 को पटना के0बी0एन0 काॅलेज के छात्रों और राज्य परिवहन सेवा के कर्मचारियों के बीच एक छोटी सी झड़प ने एक बडे़ देशव्यापी जनांदोलन का रूप धारण कर लिया। दरअसल पुलिस ने इस पूरे मामले में गलत तरीके से हस्तक्षेप करते हुए छात्रों पर बर्बरतापूर्वक हमला किया। इस हमले में काॅलेज प्रांगण में एक छात्र दीनानाथ की मौत हो गई, जिसके बाद विरोध की आग पूरे बिहार और फिर पूरे देश में फैल गई। इस बर्बर पुलिस कार्यवाही के विरोध में 14 अगस्त को बिहार भर में विरोध प्रदर्शन और सभाएँ आयोजित की र्गइं। जिस पर पुलिस ने गोलीबारी की जिसमें कई छात्रों ने अपनी जानें गँर्वाइं। सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ 15 अगस्त को तिरंगे की जगह काला झण्डा फहराकर विरोध प्रकट किया गया। इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी सहित कई पार्टियों ने विरोध सभाएँ और प्रदर्शन करके अपने विरोध का इज़हार करते हुए इस ऐतिहासिक जनांदोलन में शिरकत की।
1959 में बंगाल ने भयावह भुखमरी और खाद्य संकट का सामना किया। खाद्य संकट का प्रमुख कारण राज्य सरकार की अदूरदर्शिता पूर्ण नीतियाँ थीं जिनका ए0आई0एस0एफ0 ने जबरदस्त विरोध किया। इस संकट से निपटने के लिए वामपंथी पार्टियांे एवं संगठनों ने अकाल एवं मूल्य वृद्धि के खिलाफ कमेटी का गठन किया। खाद्य संकट के खिलाफ गुस्सा और जनाक्रोश फूट पड़ा। बंगाल के मुख्यमंत्री बी0सी0 राय ने 20 अगस्त से होने वाले आंदोलन को वापस लेने की अपील की जिसे कमेटी ने खारिज कर दिया। सरकार ने आंदोलन से पहले रातो-रात आंदोलन के अगुवा नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। तत्पश्चात कमेटी ने 31 अगस्त को एक बड़ी रैली आयोजित करने का निर्णय किया। ट्रेड यूनियनांे ने भी 3 सितम्बर को आम हड़ताल करने का निर्णय किया। अब डाॅ0 बी0सी0 राय ने बर्बरता पूर्वक इस आन्दोलन को कुचलने के प्रयास शुरू कर दिए। लाठी, गोली, आँसू गैस और दमन के सभी तरीकांे का इस्तेमाल किया। परन्तु सरकार के सारे हथकण्डे विफल रहे, आन्दोलन दिनो दिन तेज होता गया। लाखों लोग सड़कांे पर उतर आए और छात्रों ने प्रत्येक गाँव कस्बे और शहरों में इस आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सेदारी की। यह बंगाल के छात्रों और जनता के संघर्षांे का गौरवशाली और ऐतिहासिक आंदोलन था।
ए0आई0वाई0एफ0 की स्थापना
आजादी के बारह वर्ष बीत जाने के बाद भी युवाआंे के सामने बेरोजगारी और शिक्षा के प्रश्न अभी तक ज्यों के त्यों खडे़ थे। जिसके कारण देश की जनता विशेषकर युवाओं में आक्रोश लगातार बढ़ता ही जा रहा था, इस आक्रोश को संगठित करने के लिए देश के युवाओं के एक संगठन की बड़ी व्यग्रता से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। ए0आई0एस0एफ0 और उसके संघर्षांे का लम्बा इतिहास भी देश के युवाओं के लिए एक प्रेरक का काम कर रहा था। ऐसी स्थिति में देश की राजधानी दिल्ली में 28 से 31 मार्च 1959 को देशभर के 11 राज्यों के 250 प्रतिनिधि युवाओं ने एकत्र होकर ए0आई0वाई0एफ0 की स्थापना की। ए0आई0वाई0एफ0 वल्र्ड फैडरेशन आॅफ डेमोक्रेटिक यूथ से सम्बंधित हुआ। सम्मेलन ने प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी को अपने पहले अध्यक्ष के रूप में चुना, शारदा मित्रा इसके पहले महासचिव निर्वाचित हुए और साथ ही पी0के0 वासुदेवनायर को संगठन की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चेयरमैन चुना गया। 1962 के आम चुनावों में कम्युनिस्ट और प्रगतिशील ताकतों ने अच्छा प्रदर्शन किया। जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने भी अपनी सक्रिय भूमिका अदा की। आम चुनावों के बाद सरकार की नीतियों के खिलाफ 1963 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देश में पहली बार संसद चलो का नारा दिया जिसमें लाखों की संख्या में लोगांे ने भाग लिया। ए0आई0एस0एफ0 की भी इस संसद मार्च में उल्लेखनीय भागेदारी थी।
चीनी आक्रमण
चीनी फौजी टुकडि़यांे ने 1962 में भारतीय सीमा पर चढ़ाई कर दी। यह चीनी आक्रमण भारतीय कम्युनिस्टों, वामपंथी, प्रगतिशील और जनवादी शक्तियों के लिए बड़े संकट का समय था। ए0आई0एस0एफ0 ने इस चीनी हमले की तीखे और साफ शब्दो में निन्दा की। साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी इस चीनी दुस्साहस की कड़ी भत्र्सना की।
चीनी आक्रमण के प्रतिफल स्वरूप लोगांे के बीच में कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति एक गलत संदेश गया। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक समाजवादी व्यवस्था थी और चीन के इस आक्रमण ने समाजवादी विचारधारा पर ही सवालिया निशान लगा दिया। चीनी कम्युनिस्ट नेतृत्व के इस निर्णय ने भारत की कम्युनिस्ट, प्रगतिशील एवं जनवादी ताकतांे के बीच एक स्पष्ट विभाजन की रेखा खींच दी थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी ऐसी शक्तियों ने विभाजक गतिविधयाँ तेज कर दीं। जिसके परिणाम स्वरूप 1964 में पार्टी में विभाजन हो गया और एक नई पार्टी भा0क0पा0एम0 का उदय हुआ। इस विभाजन ने ए0आई0एस0एफ0 को भी एक गंभीर संकट में धकेल दिया।
वास्तव में यह चीनी संकट देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए दोहरा संकट लेकर आया। एक कम्युनिस्ट आन्दोलन में विभाजन और दूसरे आर0एस0एस0 जैसे देश की दक्षिणपंथी और फासीवादी ताकतों को कम्युनिस्ट, प्रगतिशील और जनवादी आन्दोलन पर हमले का सुनहरा मौका मिल गया था। ए0आई0एस0एफ0 की नियमित गतिविधियों के लिए यह एक झटका था। विभाजक शक्तियों ने संगठन की सभी परम्पराओं, नियमों और विचारधारात्मक परम्पराओं को ताक पर रख कर सामानान्तर संगठन खड़ा करने का काम किया। उन्होनंे प्रत्येक स्तर पर सामानान्तर संगठन बनाने अपना साहित्य छापने, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ छापने का काम प्रारम्भ कर दिया। ए0आई0एस0एफ0 को भारी नुकसान हो रहा था और यह नुकसान प0 बंगाल, आन्ध्र प्रदेश और केरल में कहीं अधिक था, हालाँकि यह नुकसान लगभग सभी राज्यांे में हो रहा था।
आर0एस0एस0 और जनसंघ ने इस मौके का देश भर में कम्युनिस्ट विरोधी माहौल बनाने में भरपूर लाभ उठाया। परन्तु ए0आई0एस0एफ0 और भा0क0पा0 द्वारा चीनी आक्रमण की स्पष्ट निन्दा किए जाने से स्थिति काफी हद तक सँभली और साथ ही देश की अन्य प्रगतिशील ताकतों ने भी इस समय काफी सहायता की। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा भारत पर चीनी आक्रमण की आलोचना की गई और देश के
प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू के दक्षिणपंथी छलावांे में नही फँसने के कारण भी स्थिति में काफी हद तक सुधार हुआ। भा0क0पा0 से अलग होकर सी0पी0एम0 बनाने वाले पार्टी विभाजकांे ने छात्र आंदोलन सहित सभी जनांदोलनों में फूट की नींव रख दी थी। 1970 में ए0आई0एस0एफ0 से टूटकर जाने वालों ने एस0एफ0आई0 नामक छात्र संगठन का गठन किया।
ए0आई0एस0एफ0 का पुनर्गठन 1964-66
ए0आई0एस0एफ0 के पुनर्गठन का निर्णय किया गया और 1964 में केरल, बिहार, आन्ध्र प्रदेश और चंडीगढ़ में राज्य सम्मेलनों का आयोजन किया गया। कई राज्यों में राज्य इकाइयों का गठन किया गया। हिंद महासागर में अमेरिकी नौसेना के प्रवेश के खिलाफ बिहार स्टूडेन्ट्स फेडरेशन ने यू0एस0आई0एस0 पर प्रदर्शन किया। चीनी आक्रमण के अस्थाई प्रभाव के बाद यूथ स्टूडेन्ट्स आन्दोलन में फिर उभार दिखने लगा। 1965 में एक यूथ स्टूडेन्ट्स कैडर मीटिंग का आयोजन दिल्ली में किया गया। इस बैठक में आसाम, बंगाल, बिहार, उडीसा, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, केरल और दिल्ली में सम्पन्न राज्य सम्मेलनांे का विशेष उल्लेख किया गया। जब साठ के दशक में छात्र-नौजवान आन्दोलन में एक उभार दिखने लगा था उसी समय 1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई, जिसके कारण अंध राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी ताकतों को भारत-सोवियत संघ की दोस्ती के खिलाफ प्रचार का मौका मिल गया। परन्तु कामयाब ताशकंद संधि ने इस अभियान को विफल कर दिया। भारत-पाकिस्तान के इस युद्ध के समय ए0आई0एस0एफ0 ने देश की रक्षा के लिए छात्रों और नौजवानों को आगे आने का आवाह्न किया। यह ऐसा समय था जिसमें विघटनकारी शक्तियाँ काफी सक्रिय हो र्गइं और भाषाई विघटनकारी शक्तियों ने हिन्दी और गैर हिन्दी लोगों के बीच तनाव पैदा करके भाषाई आधार पर दंगे भड़काने का काम किया।
पूरे देश में आर्थिक स्थितियाँ बद से बदतर हो रही थीं। सरकार ने आम जनता पर ढेरों कर लाद दिए थे। भारत ने इसी समय पी0एल0 480 समझौते के तहत अमेरिका से गेहूँ आयात किया। चैथी पंचवर्षीय योजना स्थगित कर दी गई। विश्व बैंक के दबाव में रुपये का अवमूल्यन किया गया। देश पर कर्ज 1300 करोड़ रुपए की बड़ी रकम तक पहँुच गया। बड़े पूँजीपतियों और एकाधिकारियों को बड़ी छूट दी गई जिससे उन्होनें खुले तौर पर आमजन के हितांे पर कुठाराघात कराने शुरू कर दिए। आम आवश्यकता की वस्तुओं के दामो में भारी बढ़ोŸारी हुई जिससे आम आदमी का जीना दूभर हो गया। सरकार की नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था। छात्र और नौजवान बड़ी संख्या में सरकारी नीतियों के खिलाफ सड़कांे पर उतर रहे थे। सरकार के खिलाफ इस गुस्से की अभिव्यक्ति आम चुनावों में भी दिखाई पड़ रही थी। 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस को 17 में से 9 राज्यांे में करारी हार का मुँह देखना पड़ा। इसके अलावा देश में छात्रांे और नौजवानांे ने कई महत्वपूर्ण आंदोलनों की अगुवाई की, इसमें बंगाल में 1965 का आंदोलन और बिहार का अगस्त आन्दोलन प्रमुख थे जिसमें सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण कई छात्रों ने अपनी जानों की कुर्बानी दी।
संयुक्त सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने 29 दिसम्बर 1965 से 3 जनवरी 1966 को पांडेचेरी में संयुक्त सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन ने भारत-पाक ताशकन्द समझौते का समर्थन करते हुए उसमें सोवियत संघ की भूमिका की भी सराहना की। इसी सम्मेलन में दोनों संगठनांे ने अपने आपको एक दूसरे से संबद्ध घोषित किया। जून 1966 में सरकार ने विश्व बैंक के दबाव में रुपए का अवमूल्यन किया जिससे पूरे देश में सरकार के खिलाफ आंदोलनांे की बाढ़ सी आ गई। 1966 में पूरे समय देश भर में आंदोलन चलते रहे । सितम्बर 1966 में भा0क0पा0 ने संसद मार्च का नारा दिया जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने बढ़-चढ़कर बड़ी तादाद में शिरकत की। सितम्बर-अक्टूबर 1966 में पूरे उत्तर प्रदेश में सरकार विरोधी आंदोलन शुरू हो गए। जिसमें सैंकड़ांे छात्र नौजवान घायल हुए, दर्जनों शहीद हुए और 6000 के लगभग लोगों को जेल जाना पड़ा। कानपुर में एक कालेज प्रधानाचार्य की हत्या हो गई। हत्या के आरोप में कुछ छात्रों को जेल जाना पड़ा। स्टूडेन्ट्स फेडरेशन ने इसके खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी। जिसके कारण छात्रांे का दमन शुरू हो गया और दो दिन तक कानपुर में गोलीबारी हुई। यू0पी0 के गर्वनर ने कहा कि यदि ए0आई0एस0एफ0 अपना आंदोलन वापस नहीं लेता है तो इसी तरह दमन और गोलीबारी जारी रहेगी। प्रतिक्रिया स्वरूप यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया। 15 अक्टूबर 1966 को पूरे देश में प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाया गया।
छात्रों की विभिन्न माँगांे के लिए 4 नवम्बर 1966 को एक व्यापक आधार वाली संयुक्त स्टूडेन्ट्स कमेटी का गठन किया। विभिन्न छात्र समस्याओं और माँगांे को लेकर कमेटी ने 18 नवम्बर 1966 को दिल्ली मार्च का निर्णय किया। सरकार ने इसे एक धमकी की तरह समझकर इस छात्र आंदोलन को कुचलने के उपाय शुरू किए। दिल्ली और आसपास के छात्र नेताओं को रातो-रात गिरफ्तार कर लिया गया। दिल्ली आने के रास्ते बन्द कर दिए गए, दिल्ली की सीमाओं पर भी अवरोध खड़े किए गए। हजारों छात्रों को दिल्ली पहुँचने के रास्ते में ही पकड़ लिया गया। इसी कड़ी में पूरे बिहार में भी विरोध की आग भड़क उठी जो नवम्बर 1966 से जनवरी 1967 तक अभूतपूर्व ऊँचाई पर थी। विभिन्न राज्यों में भी राज्य स्तरीय छात्र एक्शन कमेटी का गठन किया गया। जिसने 8 दिसम्बर 1966 को माँग दिवस के रूप में मनाया। समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर में पुलिस ने छात्रांे पर जबरदस्त ज्यादतियाँ कीं। पटना और उसके आसपास के इलाकों में भी बड़ी संख्या में छात्रांे की गिरफ्तारियाँ हुईं।
1967 के चुनाव और उसके बाद का समय
1967 में सम्पन्न चैथे आम चुनाव में आजादी के बाद कांग्रेस को पहली बार हार का मुँह देखना पड़ा। बहुमत राज्यांे में कांग्रेस की हार हुई, 17 में से 9 राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। बहुमत राज्यांे में विपक्षी सरकारांे का गठन हुआ, केरल और प0 बंगाल में वामपंथी सरकार का गठन हुआ। देश में बदलते इन हालातों के बीच सरकारी नीतियों के खिलाफ लगातार आन्दोलनांे का दौर जारी रहा। इसी बीच 17 नवम्बर 1969 को ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने संयुक्त रूप से बेरोजगारी के खिलाफ अखिल भारतीय संसद मार्च का आवाह्न किया, जिसमें हजारों छात्रों और नौजवानों ने भागीदारी की। इसीके साथ लाखों हस्ताक्षरों के साथ छात्र और नौजवानों द्वारा तैयार एक माँग पत्र भी संसद को दिया गया। असल में यह बेरोजगारी के खिलाफ छात्र-युवा आंदोलन की तीसरी अवस्था थी, इससे पहले दिसम्बर 1968 में छात्र युवाओं ने दिल्ली में एक कंवेंशन आयोजित किया था और देश भर में बेरोजगारी के सवाल पर जत्थे निकाले गए थे।
ए0आई0एस0एफ0 का अठारहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का अठारहवाँ सम्मेलन दिल्ली में 21-23 दिसम्बर 1969 को सम्पन्न हुआ। सम्मेलन में देशभर से 350 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन का उद्घाटन प्रो0 हीरेन मुखर्जी ने किया। सम्मेलन में शिक्षा एवं परीक्षा में सुधार, प्रबन्धन में छात्रों की भागीदारी, छात्र संघांे के गठन की अनिवार्यता, रोजगार या बेकारी भत्ता और 18 वर्ष की आयु में मताधिकार के सवालों पर एक माँग पत्र भी तैयार किया गया। 1969 में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी और आन्दोलन हुए। इसी दौर में भा0क0पा0, वामपंथ और इंदिरा कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार वी0वी0 गिरी देश के राष्ट्रपति चुने गए। 14 बैंकांे का राष्ट्रीयकरण किया गया और राजाआंे का प्रीवी पर्स भी इसी समय खत्म कर दिया गया। जिसका ए0आई0एस0एफ0 ने भारी स्वागत किया।
इसी समय देश की कई समस्याओं को लेकर भी राजनैतिक बहस का दौर शुरू हुआ। देश में व्याप्त विसंगतियांे, असमानताआंे और आर्थिक सामाजिक समस्याओं के
समाधान के लिए एक सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण की आवश्यकता थी जिसके लिए छात्र-युवा संगठनों में भी वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर एक जबरदस्त बहस छिड़ी हुई थी। इन हालात में ए0आई0एस0एफ0-ए0आई0वाई0एफ0 के सामने भी यह महत्वपूर्ण सवाल था कि क्या उन्हंे वैज्ञानिक समाजवाद को अपने लक्ष्यों में शामिल करना चाहिए। इन्हीं सवालों पर बात करने के लिए जून 1969 को दिल्ली में दोनों संगठनांे की कैडर मीटिंग हुई। लम्बी बहस और चर्चा के बाद तय हुआ कि ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 को अपनी एक वैचारिक दिशा निर्धारित करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद के लक्ष्यांे की ओर जाने के लिए छात्रों और युवाओं को वैचाारिक रूप से शिक्षित करना होगा। छात्रों और नौजवानों की एक अन्य कैडर मीटिंग जून 1971 में दिल्ली में हुई जिसमें सांगठनिक ढ़ाँचे और उसके कार्यों को लेकर चर्चा हुई।
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में विघटन के कारण माक्र्सवादी विचारधारा को कई तरह के वैचारिक भटकावों से होकर गुजरना पड़ा। सी0पी0एम0 के उदय के साथ ही देश का परिचय माओवाद जैसे माक्र्सवादी भटकाव से हुआ। आज बेशक सी0पी0एम0 अपने आप को माओवाद की मुखर आलोचक और प्रमुख शत्रु सिद्ध करने की कोशिश करे परन्तु वास्तविकता यह है कि सी0पी0एम0 का निर्माण माओवादी दर्शन के आधार पर ही हुआ है। यह माओवाद ही है जिसने माक्र्सवाद के मूल सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की गलत एवं विध्वसंक परिभाषा दुनिया के सामने पेश की जिसके कारण पूरी दुनिया और विशेषकर तीसरी दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन को बिखराव का सामना करना पड़ा। देश में अतिवामपंथी नक्सलवाद भी इसी माकपाई संकीर्णता की देन रहा। इसी संकीर्णतावादी अतिक्रान्तिकारी दुस्साहस ने देश के छात्रों और नौजवानांे में एक राजनैतिक विभ्रम का प्रसार किया जिसका परिणाम पार्टी की टूट के बाद जन संगठनों के विघटन में भी दिखाई दिया। 1970 में एस0एफ0आई0 का निर्माण इसी संकीर्णता का परिणाम था।
वैचारिक प्रश्नांे पर बहस की इस प्रक्रिया में एक ओर छात्र-युवा कैडर मीटिंग 20-22 मई को हैदराबाद में हुई। इन कैडर मीटिंगों में वैज्ञानिक समाजवाद, माक्र्सवाद, लेनिनवाद और अन्ततोगत्वा राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की संकल्पना को छात्र नौजवान संगठनों के संविधान में शामिल किए जाने का निर्णय हुआ। इन सवालांे पर औपचारिक फैसला ए0आई0एस0एफ0 के 19वें सम्मेलन में लिया गया।
19वाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का 19वाँ सम्मेलन 14-17 जनवरी 1974 को कोचीन में संपन्न हुआ। यह सम्मेलन अपने महत्वपूर्ण संवैधानिक बदलावांे के कारण एक विशिष्ट आयोजन था। इस सम्मेलन के पूर्व एवं पश्चात् का समय देश और संगठन के लिए महत्वपूर्ण एवं प्रभावकारी घटनाओं और आंदोलनांे का समय था। जहाँ ए0आई0एस0एफ0 ने छात्रांे के जनवादी अधिकारांे के लिए और बेरोजगारी के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलनांे में सक्रिय और निर्णायक भूमिका अदा की, तो वहीं वाम, प्रगतिशील और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर महँगाई, काला बाजारी और जमाखोरी के खिलाफ भी ए0आई0एस0एफ0 ने आंदोलनों में भाग लिया। यही वह समय भी था जब देश में जयप्रकाश नारायण का पार्टी विहीन जनवाद और सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन सर उठा रहा था। दक्षिणपंथी और फासीवादी शक्तियांे के कन्धों पर खड़ा यह आन्दोलन भ्रष्टाचार, महँगाई और बेकारी जैसे मुद्दों को लुभावने नारों में बदलकर आगे बढ़ा। इस आन्दोलन के खतरों को उजागर करने के लिए ए0आई0एस0एफ0 ने एक कंवेंशन का आयोजन 26-27 अप्रैल 1974 को पटना में किया। जिसमें कुछ सहयोगी जनवादी प्रगतिशील संगठनांे के साथ 2000 छात्रों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा पटना में आयोजित जे0पी0 आन्दोलन विरोधी रैली में लाखों की संख्या में लोगांे ने भाग लिया जिसमें बड़ी संख्या में छात्र और नौजवान भी शामिल थे। आखिरकार यह आन्दोलन जे0पी0 और इंदिरा गांधी दोनांे के लिए अपने अपने वर्चस्व की लड़ाई में बदल गया। इंदिरा गांधी ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए देश में जून 1975 में आपात्तकाल की घोषणा कर दी। शुरुआत में आपातकाल का उपयोग दक्षिणपंथी, आर0एस0एस0 और जनसंघ जैसी ताकतों पर लगाम लगाने के लिए किया गया परन्तु बाद में यह जनवादी, प्रगतिशील और वामपंथी ताकतांे के भी दमन का औजार बन गया। ऐसी स्थिति में ए0आई0एस0एफ0 ने आपातकालीन दमन का पुरजोर विरोध किया। ए0आई0एस0एफ0 ने मेडिकल छात्रांे और जूनियर डाॅक्टरांे को लामबद्ध करने का महत्वपूर्ण काम किया। जिनका 26 अक्टूबर 1974 को अमृतसर में सम्मेलन करते हुए आॅल इण्डिया मेडिकोज फेडरेशन की स्थापना की गई।
आपातकाल के बाद का समय
इंदिरा गांधी को आपातकाल के दमन की सजा 1977 के चुनाव नतीजों में मिल गई। इंदिरा गांधी को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। जनसंघ और अन्य कई दलांे और गुटांे के घालमेल से बनी जनता पार्टी सत्ता में आई परन्तु जल्दी ही जनता पार्टी की वास्तविकता और विफलता लोगांे के सामने आ गई। जनता पार्टी लोगांे की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई, लोगांे में पार्टी के खिलाफ भारी असंतोष व्याप्त हो चुका था। अन्ततोगत्वा जनता पार्टी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और उसमें टूट हो गई। इसी जनता पार्टी की टूट से भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई।
जनता पार्टी की जन विरोधी नीतियांे और संघीय ढ़ाँचे पर हमले की उसकी दक्षिणपंथी योजनाआंे के खिलाफ ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने देशव्यापी जुझारु आंदोलन चलाया। कई अवस्थाओं में चलते इस आंदोलन में कंवेंशन, हस्ताक्षर अभियान, घेराव और गिरफ्तारी हर एक तरीके से ए0आई0एस0एफ0 ने जनता पार्टी सरकार की दक्षिणपंथी नीतियों का विरोध किया। ए0आई0एस0एफ0 ने साम्राज्यवाद के खिलाफ और हिंद महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने के लिए भी इस बीच कई आंदोलन चलाए और क्यूबा में होने वाले छात्र-युवा महोत्सव की तैयारी के सिलसिले में भी देश भर में भारत-सोवियत युवा उत्सवांे का आयोजन किया गया।
बीसवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का बीसवाँ सम्मेलन 7-9 फरवरी 1979 को पंजाब के
लुधियाना में सम्पन्न हुआ। जनता पार्टी के दो वर्षों के विफल शासन के बाद ही देश में फिर से इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आई) की वापसी हो गई। इंदिरा गांधी राजनैतिक स्थायित्व का नारा देकर वापस सत्ता में आई थीं। मगर नतीजे इसके विपरीत जान पड़ रहे थे साम्प्रदायिक, अलगाववादी और विभाजक शक्तियाँ दिन प्रतिदिन मजबूत हो रही थीं। आर0एस0एस0, जमायत जैसी साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ ही खालिस्तान जैसी अलगाववादी शक्तियाँ देश की एकता अखण्डता के लिए लगातार गंभीर चुनौती बन रही थीं। ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने जनवादी अधिकारों के लिए और बेरोजगारी के खिलाफ 21-22 जुलाई 1979 से देशव्यापी आंदोलन की शुरुआत की। ‘‘काम दो या जेल दो‘‘ नारे के तहत चला यह जुझारु आंदोलन छात्र एवं युवा संघर्षांे की ऐतिहासिक मिसाल है। इस आंदोलन में भाग लेते हुए हजारांे छात्र नौजवान गिरफ्तार किए गए जिनको लम्बे समय तक जेलांे में गुजारना पड़ा।
इसी दौरान ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने एक गौरवशाली परम्परा की शुरुआत की। 23 मई 1979 से शहीदे आज़म भगत सिंह, उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव की शहादत को याद करते हुए हर साल 23 मार्च को शहीदी सप्ताह और शहीदी पखवाड़ा मनाने की शुरुआत ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 द्वारा हुई। इस बीच ए0आई0एस0एफ0 ने कई जनवादी, धर्मनिरपेक्ष छात्र-युवा संगठनों से मिलकर धर्मनिरपेक्ष छात्र सम्मेलन, राष्ट्रीय एकता के लिए और मास्को ओलम्पिक के सर्मथन में सम्मेलनों का आयोजन किया। साथ ही 1981-82 के दौरान केरल, बंगाल, यू0पी0, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उड़ीसा, मणिपुर और तमिलनाडु आदि में छात्र और नौजवानों की विभिन्न माँगों के समर्थन में धरना, प्रदर्शन, घेराव, रैली और जत्थों का आयोजन किया। इस दौर में ए0आई0एस0एफ0-ए0आई0वाई0एफ0 का ‘‘काम या जेल‘‘ छात्र-नौजवान आंदोलन की एक ऐतिहासिक उपलब्धि ही कहा जाएगा। हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने की माँग को लेकर अगस्त 1981 को तिरूअनन्तपुरम में किया गया सम्मेलन भी संगठन का एक उल्लेखनीय आयोजन था।
पूरी दुनिया में फासीवादी खतरे और भारतीय सीमा पर खड़ी हिटलर की सहयोगी जापानी फौजों के कारण ए0आई0एस0एफ0 ‘‘भारत छोड़ो‘‘ आंदोलन और उसके समय से सहमत नहीं था। बावजूद इसके ए0आई0एस0एफ0 ने आंदोलन के दौरान गिरफ्तार राजनेताआंे की रिहाई के लिए देशव्यापी आन्दोलन चलाया। इसी के साथ ए0आई0एस0एफ0 ने जापानी खतरे का सामना करने के लिए आसाम, बंगाल और मणिपुर के सीमावर्ती इलाकों में सशस्त्र और बिना हथियारांे के जत्थों का गठन किया।
1943 में देश बडे़ अकाल की चपेट में आ चुका था। बम्बई, आसाम, बंगाल, उड़ीसा, बिहार और मद्रास आदि बुरी तरह इस अकाल की चपेट में आ चुके थे। जहाँ देश की एक तिहाई आबादी इस अकाल का शिकार थी वहीं बंगाल इस अकाल की सबसे बुरी तरह चपेट में था। ए0आई0एस0एफ0 ने इस संकट के समय में राहत कार्यों में बढ़-चढ़कर भागेदारी की, साथ ही राहत सामग्री और फण्ड के लिए देशव्यापी अभियान भी चलाया। ए0आई0एस0एफ0 ने इस दौरान सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए जहाँ बंगाल में ढेरों सस्ती दर की दुकानंे चलाईं तो वहीं कई सारी रसोइयाँ भी भूखों को खाना खिलाने के लिए चलाई। इस सारे राहत कार्यो में ए0आई0एस0एफ0 के तीन हजार कार्यकर्ताओं ने प्रतिबद्धता के साथ काम किया।
इक्कीसवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का इक्कीसवाँ सम्मेलन त्रिची, तमिलनाडु में 28-31 जनवर 1983 को हुआ। मार्च 1983 को दिल्ली में 7वाँ गुटनिरपेक्ष सम्मेलन आयोजित होना था जिसके समर्थन में ए0आई0एस0एफ0 ने कई सेमिनारों, गोष्ठियों और बैठकांे का आयोजन किया। युवा दिवस के अवसर पर दिल्ली से हुसैनीवाला तक साइकिल रैली आयोजित की गई जिस पर पंजाब के खालिस्तानी नेता भिंडरवाले के भाई की देख-रेख में हमला किया गया। दोहरी शिक्षा पद्धति के विरुद्ध सितम्बर 1983 में बनारस से देहरादून तक एक साइकिल जत्थे का आयोजन किया गया जिसमें 50 सक्रिय कार्यकर्ताओं ने भाग लिया और यह जत्था 1400 किलोमीटर का सफर तय करके 20 दिनोें में देहरादून पहँुचा। जहाँ दून स्कूल के बाहर इस जत्थे पर जबरदस्त लाठीचार्ज हुआ और इसमें कई छात्र नेता घायल हुए अतुल कुमार अंजान के सिर पर भी काफी चोट आईं। बावजूद इस सबके आंदोलनकारी छात्रों को जेल में ठूस दिया गया। ए0आई0एस0एफ0 ने इस दौरान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की गैर जनवादी रिपोर्ट के खिलाफ जहाँ मार्च 1983 में अखिल भारतीय प्रतिरोध दिवस का आयोजन किया तो वहीं ए0आई0वाई0एफ0 के संसद मार्च में भी सक्रिय सहयोग किया। 13 सितम्बर को भी ए0आई0एस0एफ0-ए0आई0वाई0एफ0 ने मिलकर संयुक्त रुप से प्रतिरोध दिवस का आयोजन किया। जिसमें दिल्ली और उसके आसपास के राज्यों से 5 हजार छात्रों ने भागीदारी की। इसके अलावा और 14 राज्यों में भी इसी दिन प्रतिरोध दिवस मनाया गया। ए0आई0एस0एफ0 ने 1984 में हुई इंटरनेशनल यूनियन आॅफ स्टूडेन्ट्स की 14वीं कांग्रेस में सोफिया (बुल्गारिया) में शिरकत की तो वहीं 1985 में मास्को में संपन्न 12 वें अन्तर्राष्ट्रीय छात्र एवं युवा महोत्सव में भी भाग लिया।बाइसवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का बाइसवाँ सम्मेलन 13-16 दिसम्बर 1985 को गुंटूर,
आन्ध्र प्रदेश में संपन्न हुआ। सम्मेलन के फौरन बाद 14 फरवरी 1986 को संगठन ने केन्द्र सरकार के शिक्षा पर नकारात्मक रुख वाले एक दस्तावेज के खिलाफ प्रतिरोध दिवस मनाया। इसके बाद 13 सित्मबर 1986 को भी सरकार की नई शिक्षा नीति के खिलाफ प्रतिरोध दिवस मनाया। यह वह समय था जब देश में एक तरफ अलगाववादी, साम्प्रदायिक और जातिवादी ताकतंे सिर उठा रही थीं जो देश की एकता अखण्डता के लिए गंभीर खतरा था तो दूसरी तरफ आम आदमी बढ़ती महँगाई और सरकार की जन विरोधी नीतियों से परेशान था। ऐसे समय में ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने संयुक्त रूप से ‘‘बचाओ भारत-बदलो भारत‘‘ नारे के तहत जनवरी से मार्च तक तीन साइकिल जत्थों के रूप में देश की एकता अखण्डता बनाए रखने के लिए और जनविरोधी नीतियांे के खिलाफ एक बड़े अभियान की शुरुआत की। इस कार्यक्रम का समापन 26 मार्च को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक रैली के रूप में हुआ जिसमें हजारों छात्रों नौजवानों ने भाग लिया।
ए0आई0एस0एफ0 की पचासवीं स्वर्ण जयन्ती
ए0आई0एस0एफ0 ने 50 साल पूरे होने पर लखनऊ में 12 से 14 अगस्त 1986 को बेहद शानदार तरीके से अपनी स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस आयोजन की शुरुआत पहले दिन की बड़ी रैली से हुई। स्वर्ण जयन्ती समारोह का उद्घाटन महान स्वतंत्रता सेनानी बाबा पृथ्वी सिंह आजाद ने किया। 22 देशों के बिरादराना संगठनों के 27 प्रतिनिधियों ने भी इस समारोह में भागेदारी की। ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना करने वालों में एक हरीश तिवारी के साथ एम0 फारुकी, ए0बी0 बर्धन, प्रशान्त सान्याल, विश्वनाथ मुखर्जी, गीता मुखर्जी, रमेश सिन्हा, सुनील सेनगुप्ता, शफीक नकवी, एच0के0 व्यास और प्रो0 संतोष भट्टाचार्य आदि आन्दोलन के कई वरिष्ठ साथियांे ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया। समारोह के बहाने पुराने दिनों को याद करना, संगठन के लिए गौरवमयी पलांे को जीने के समान था और पुराने गौरव से मिलने का नए छात्रों का उत्साह भी उल्लेखनीय था।
इस यादगार समारोह के बाद ए0आई0एस0एफ0 ने नई शिक्षा नीति के खिलाफ आन्दोलन की फिर से कमान सँभाल ली। जहाँ सितम्बर 1988 में विरोध दिवस मना कर प्रतिरोध की शुरुआत की तो वहीं दिसम्बर 1986 को रेल रोको आंदोलन ने इस
विरोध को नई ऊँचाइयाँ दीं। 1988, छात्र युवा आंदोलन के उभार का समय था बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, केरल, मणिपुर, यू0पी0, आन्ध्र प्रदेश और दिल्ली में सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन हुए। कर्नाटक, राजस्थान में भी आंदोलन और प्रदर्शन हुए तो वहीं हरियाणा, पंजाब और यू0पी0 में छात्र-युवा कंवेंशन भी हुए। इसी समय पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन के कारण हालात बद से बदतर हो रहे थे। ए0आई0एस0एफ0 ने अन्य जनवादी और वामपंथी संगठनों के साथ मिलकर खालिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की कमान सँभाली। ए0आई0एस0एफ0-ए0आई0वाई0एफ0 ने आतंकवाद का सामना करते हुए अपने कई साथियों की कुर्बानी दी। ठीक इसी समय आर0एस0एस0 और भा0ज0पा0 के नेतृत्व में साम्प्रदायिक ताकतें भी मजबूत हो रही थी। राम जन्मभूमि और बाबरी मजिस्द को मुद्दा बनाकर हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिकों ने देश में राजनैतिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिक विभाजन के एक नए युग की शुरुआत कर दी थी। देश की एकता अखण्डता को चुनौती देनी वाली इस साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति को भा0ज0पा0 की रथयात्रा ने साम्प्रदायिक सद्भाव की तबाही के रूप में बदल दिया। ए0आई0एस0एफ0 ने दूसरी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ मिलकर देश की एकता अखण्डता को बचाने के लिए सघन अभियान की शुरुआत की। यू0पी0 ए0आई0एस0एफ0 ने खासतौर पर धर्मनिरपेक्षता के लिए और साम्प्रदायिकता के खिलाफ राज्य व्यापी अभियान चलाया। यह वह समय था जब राजीव गाँधी अपनी साफ छवि के साथ सत्ता में आए थे परन्तु थोड़े दिन में ही उनकी यह छवि धूमिल हो चुकी थी। वाम और जनवादी शक्तियों के साथ मिलकर ए0आई0एस0एफ0 ने इस दौरान एक जुझारू आंदोलन की शुरूआत की जिसके तहत दिल्ली में ‘‘राजीव गांधी गद्दी छोड़ो‘‘ के नारे के साथ 9 दिसम्बर 1987 को एक ऐतिहासिक रैली का आयोजन किया गया। इसी कड़ी में आगे चलकर 15 मार्च 1988 को आयोजित भारत बंद में भी ए0आई0एस0एफ0 ने देश भर में शिक्षण संस्थानों को बंद करवाने में बड़ी भूमिका अदा की। ए0आई0एस0एफ0 ने 30 अगस्त के भारत बंद में भी महत्चपूर्ण भाूमिका अदा की। ए0आई0एस0एफ0 -ए0आई0वाई0एफ0 ने मंडल कमीशन के समर्थन में और शिक्षा एवं काम के अधिकार की माँग को लेकर 9 सितम्बर 1990 को संसद के सामने बोट क्लब पर प्रदर्शन किया।
इसके अलावा कई अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दांे को लेकर भी ए0आई0एस0एफ0 ने जुझारू आंदोलन किए। स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के 50 छात्रों ने लीबिया पर अमेरिकी हमले के विरोध में दिल्ली के अमेरिकन सेन्टर पर कब्जा किया। 9 सितम्बर 1987 को नेल्सन मंडेला की आजादी और नस्लवाद विरोधी दिवस के रूप में मनाया गया। 2 अक्टूबर 1987 को दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया के प्रति एकजुटता दिवस के रूप में मनाया गया। इसी दिन दिल्ली ए0आई0एस0एफ0 के छात्र-छात्राओं ने ब्रिटिश काउंसिल पर कब्जा करके विरोध व्यक्त किया। नेल्सन मंडेला के जन्म दिवस के मौके पर उनकी रिहाई के लिए ए0आई0एस0एफ0 ने ब्रिटिश काउंसिल के समक्ष प्रदर्शन किया और इसके अलावा केरल इकाई ने 50 हजार हस्ताक्षर करा कर विरोध व्यक्त किया। इसी बीच ए0आई0एस0एफ0 ने फिलीस्तीन के समर्थन में भी कईं कार्यक्रमों का आयोजन किया। 18 मई 1988 को फिर ए0आई0एस0एफ0 ने अमरीकन सेन्टर पर कब्जा करके फिलीस्तीन की संयुक्त राष्ट्र से सदस्यता समाप्त करने सम्बंधी बयान का विरोध किया। 8-15 दिसम्बर 1988 को ए0आई0एस0एफ0 केरल ने फिलीस्तीन सप्ताह के रूप में मनाया। 13 वें विश्व छात्र-युवा महोत्सव का आयोजन जुलाई 1987 में किया गया जिसकी तैयारी के लिए कई कार्यक्रम भारत में भी आयोजित किए गए।
23वाँ ए0आई0एस0एफ0 सम्मेलन
ए0आईएसएफ का 23वाँ सम्मेलन फरवरी 1991 में बोकारो में आयोजित किया गया। इस समय तक कई राजनैतिक बदलाव और आंदोलन देश भर के पैमाने पर हो रहे थे जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने सराहनीय एवं महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। 1991 का वह समय था जब नरसिंह राव सरकार विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के निर्देशन में देश में निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियाँ लागू कर रही थी। साथ ही दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की प्रबल पैरोकार भा0ज0पा0 भी राम जन्मभूमि के अपने प्रतिक्रियावादी एजेंडे के द्वारा लोगांे का ध्यान भटका कर नई आर्थिक नीतियों को लागू करवाने में सहायक की भूमिका अदा कर रही थी। ऐसी स्थिति में ए0आई0एस0एफ0 और ए0आई0वाई0एफ0 ने वाम जनवादी शक्तियों के साथ मिलकर कांग्रेस की नई आर्थिक नीतियों और भा0ज0पा0 के साम्प्रदायिक एजेंडे का एक साथ विरोध किया।
ए0आई0एस0एफ0 का 24वाँ सम्मेलन
7-9 फरवरी 1996 को हैदराबाद में संपन्न हुआ। ए0आई0एस0एफ0 ने दूसरे वामपंथी जनवादी छात्र संगठनों के साथ मिलकर 29 नवम्बर 1995 को अखिल भारतीय हड़ताल करके शिक्षा बचाओ आन्दोलन को आगे बढ़ाया। ए0आई0एस0एफ0 ने 1996 में देशभर में अपनी 60वीं सालगिरह मनाई। ए0आई0एस0एफ0 की छात्राओं ने 1998 में उड़ीसा में धरना आयोजित किया साथ ही देशभर में प्रतिक्रियावादी ताकतों के नारीवादी विरोधी रुख के खिलाफ कार्यक्रम आयोजित किए। 11 दिसम्बर 1998 को अखिल भारतीय छात्र हड़ताल का आयोजन किया गया।
ए0आई0एस0एफ0 का पच्चीसवाँ सम्मेलन
18-21 अक्टूबर 2000 को जालांधर में आयोजित किया गया था। 2000 विभिन्न मुद्दों पर ए0आई0एस0एफ0 के सक्रिय आंदोलनांे का साल था। तमिलनाडु का शिक्षा
अधिकार दिवस, आसाम का विधानसभा मार्च, कोल्लम का छात्र आन्दोलन, बैंगलोर का फाईन आर्टस छात्र आंदोलन, उड़ीसा बाढ़ राहत अभियान और कई राज्यों के सम्मेलन इस साल की मुख्य घटनाएँ थीं। ए0आई0एस0एफ0 ने 6 जुलाई 2001 को शिक्षा के भगवाकरण के खिलाफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष प्रदर्शन किया। ए0आई0एस0एफ0 ने 8-16 अगस्त 2001 में अलजीरिया में आयोजित 15 वें छात्र युवा महोत्सव में भाग लिया। ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना के 65 वर्ष पूरे होने पर हैदराबाद में छात्र एवं युवा राष्ट्रीय महोत्सव का सफल आयोजन किया। बिहार ए0आई0एस0एफ0 ने शिक्षा बोर्ड में भ्रष्टाचार और फीस वृद्धि के खिलाफ विधानसभा का घेराव किया। महाराष्ट्र एस0एफ0 ने भी छात्रांे की विभिन्न समस्याओं को लेकर अक्टूबर 2002 में विधानसभा का घेराव किया। कुछ छात्र विरोध स्वरूप दर्शक दीर्घा से विधानसभा गैलरी में कूद गए। 29 नवम्बर 2002 को ए0आई0एस0एफ0 ने संसद चलो का नारा दिया जिसमें बड़ी संख्या में देशभर से छात्रों ने भाग लिया। केरल ए0आई0एस0एफ0 ने भी छात्रों की विभिन्न समस्याआंे को लेकर 2003 में विधानसभा का घेराव किया। पुलिस ने छात्रांे पर लाठीचार्ज किया और बड़ी संख्या में छात्रों को जेल में भी डाल दिया।
ए0आई0एस0एफ0 का छब्बीसवाँ सम्मेलन
छब्बीसवाँ सम्मेलन 3-6 जनवरी 2006 को चेन्नई में हुआ और सत्ताईसवाँ सम्मेलन 13-15 फरवरी 2010 को पंाडेचेरी में संपन्न हुआ। सम्मेलन का नारा था ‘‘शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण बन्द करो‘‘। 24 राज्यों के लगभग 1000 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया। सम्मेलन में ‘‘ भारत में शिक्षा व्यवस्था का संकट‘‘ विषय पर एक सेमिनार का आयोजन भी किया गया जिसे सांसद व भा0क0पा0 राष्ट्रीय सचिव डी0 राजा और प्रख्यात शिक्षाविद् अनिल सदगोपालन ने संबोधित किया।
अब ए0आई0एस0एफ0 अपने 75 वर्षांे के गौरवशाली इतिहास को याद करने और भविष्य की चुनौतियों से संघर्षो की तैयारी करने के लिए 12-13 अगस्त 2011 को फिर से लखनऊ के उसी सर गंगा राम मेमोरियल हाॅल में अपनी 75वीं जयन्ती मनाने के लिए एकत्रित हो रहा है जहाँ 1936 में इसकी स्थापना हुई थी।
समाप्त